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येशु का बन्दी बनाया जाना

(मारक 14:43-52; लूकॉ 22:47-53; योहन 18:1-11)

47 येशु अपना कथन समाप्त भी न कर पाए थे कि यहूदाह, जो बारह शिष्यों में से एक था, वहाँ आ पहुँचा. उसके साथ एक बड़ी भीड़ थी, जो तलवारें और लाठियाँ लिए हुए थी. ये सब प्रधान पुरोहितों और पुरनियों की ओर से प्रेषित किए गए थे. 48 येशु के विश्वासघाती ने उन्हें यह संकेत दिया था: “मैं जिसे चूमूँ, वही होगा वह. उसे ही पकड़ लेना.” 49 तुरन्त यहूदाह येशु के पास आया और कहा, “प्रणाम, रब्बी!” और उन्हें चूम लिया.

50 येशु ने यहूदाह से कहा.

“मेरे मित्र, जिस काम के लिए आए हो, उसे पूरा कर लो.” उन्होंने आ कर येशु को पकड़ लिया. 51 येशु के शिष्यों में से एक ने तलवार खींची और महायाजक के दास पर चला दी जिससे उसका कान कट गया.

52 येशु ने उस शिष्य से कहा, “अपनी तलवार को म्यान में रखो! जो तलवार उठाते हैं, वे तलवार से ही नाश किए जाएँगे. 53 तुम यह तो नहीं सोच रहे कि मैं अपने पिता से विनती नहीं कर सकता और वह मेरे लिए स्वर्गदूतों के बारह से अधिक बड़ी सेना नहीं भेज सकते? 54 फिर भला पवित्रशास्त्र के लेख कैसे पूरे होंगे, जिनमें लिखा है कि यह सब इसी प्रकार होना अवश्य है?”

55 तब येशु ने भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा, “क्या तुम्हें मुझे पकड़ने के लिए तलवारें और लाठियाँ ले कर आने की ज़रूरत थी, जैसे किसी डाकू को पकड़ने के लिए होती है? मैं तो प्रतिदिन मन्दिर में बैठ कर शिक्षा दिया करता था! तब तुमने मुझे नहीं पकड़ा! 56 यह सब इसलिए हुआ है कि भविष्यद्वक्ताओं के लेख पूरे हों.” इस समय सभी शिष्य उन्हें छोड़ कर भाग चुके थे.

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