Add parallel Print Page Options

यीशु का यरूशलेम में प्रवेश

(मत्ती 21:1-11; मरकुस 11:1-11; यूहन्ना 12:12-19)

28 ये बातें कह चुकने के बाद यीशु आगे चलता हुआ यरूशलेम की ओर बढ़ने लगा। 29 और फिर जब वह बैतफगे और बैतनिय्याह में उस पहाड़ी के निकट पहुँचा जो जैतून की पहाड़ी कहलाती थी तो उसने अपने दो शिष्यों को यह कह कर भेजा, 30 “यह जो गाँव तुम्हारे सामने है वहाँ जाओ। जैसे ही तुम वहाँ जाओगे, तुम्हें गधी का बच्चा वहाँ बँधा मिलेगा जिस पर किसी ने कभी सवारी नहीं की होगी, उसे खोलकर यहाँ ले आओ 31 और यदि कोई तुमसे पूछे तुम इसे क्यों खोल रहे हो, तो तुम्हें उससे यह कहना है, ‘प्रभु को चाहिये।’”

32 फिर जिन्हें भेजा गया था, वे गये और यीशु ने उनको जैसा बताया था, उन्हें वैसा ही मिला। 33 सो जब वे उस गधी के बच्चे को खोल ही रहे थे, उसके स्वामी ने उनसे पूछा, “तुम इस गधी के बच्चे को क्यों खोल रहे हो?”

34 उन्होंने कहा, “यह प्रभु को चाहिये।” 35 फिर वे उसे यीशु के पास ले आये। उन्होंने अपने वस्त्र उस गधी के बच्चे पर डाल दिये और यीशु को उस पर बिठा दिया। 36 जब यीशु जा रहा था तो लोग अपने वस्त्र सड़क पर बिछाते जा रहे थे!

37 और फिर जब वह जैतून की पहाड़ी से तलहटी के पास आया तो शिष्यों की समूची भीड़ उन सभी अद्भुत कार्यो के लिये, जो उन्होंने देखे थे, ऊँचे स्वर में प्रसन्नता के साथ परमेश्वर की स्तुति करने लगी। 38 वे पुकार उठे:

“‘धन्य है वह राजा, जो प्रभु के नाम में आता है।’(A)

स्वर्ग में शान्ति हो, और आकाश में परम परमेश्वर की महिमा हो!”

39 भीड़ में खड़े हुए कुछ फरीसियों ने उससे कहा, “गुरु, शिष्यों को मना कर।”

40 सो उसने उत्तर दिया, “मैं तुमसे कहता हूँ यदि ये चुप हो भी जायें तो ये पत्थर चिल्ला उठेंगे।”

Read full chapter

विजयोल्लास में येरूशालेम प्रवेश

(मत्ति 21:1-11; मारक 11:1-11; योहन 12:12-19)

28 इसके बाद मसीह येशु उनके आगे-आगे चलते हुए येरूशालेम नगर की ओर बढ़ गए. 29 जब मसीह येशु ज़ैतून नामक पर्वत पर बसे गाँव बैथफ़गे तथा बैथनियाह पहुँचे, उन्होंने अपने दो शिष्यों को इस आज्ञा के साथ आगे भेज दिया, 30 “सामने उस गाँव में जाओ. वहाँ प्रवेश करते ही तुम्हें गधे का एक बच्चा बंधा हुआ मिलेगा, जिसकी अब तक किसी ने सवारी नहीं की है उसे खोल कर यहाँ ले आओ. 31 यदि कोई तुमसे यह प्रश्न करे, ‘क्यों खोल रहे हो इसे?’ तो उसे उत्तर देना, ‘प्रभु को इसकी ज़रूरत है.’”

32 जिन्हें इसके लिए भेजा गया था, उन्होंने ठीक वैसा ही पाया, जैसा उन्हें सूचित किया गया था. 33 जब वे उस बच्चे को खोल ही रहे थे, उसके स्वामियों ने उनसे पूछा, “क्यों खोल रहे हो इसे?”

34 उन्होंने उत्तर दिया, “प्रभु को इसकी ज़रूरत है.”

35 वे उसे प्रभु के पास ले आए और उस पर अपने वस्त्र डाल कर मसीह येशु को उस पर बैठा दिया. 36 जब प्रभु जा रहे थे, लोगों ने अपने बाहरी वस्त्र मार्ग पर बिछा दिए.

37 जब वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ ज़ैतून पर्वत का ढाल प्रारम्भ होता है, सारी भीड़ उन सभी अद्भुत कामों को याद करते हुए, जो उन्होंने देखे थे, ऊँचे शब्द में आनन्दपूर्वक परमेश्वर की स्तुति करने लगी:

38 “स्तुति के योग्य है वह राजा, जो प्रभु के नाम में आ रहा है!
स्वर्ग में शान्ति और सर्वोच्च में महिमा हो!”

39 भीड़ में से कुछ फ़रीसियों ने, आपत्ति उठाते हुए मसीह येशु से कहा, “गुरु, अपने शिष्यों को डांटिए!”

40 “मैं आपको यह बताना चाहता हूँ,” मसीह येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “यदि ये शान्त हो गए तो स्तुति इन पत्थरों से निकलने लगेगी.”

Read full chapter